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Hindi Essay (Nibandh) - Autobiography of a River
(Nadi Ki Atmakatha | Ek Nadi Ki Kahani)
नदी की आत्मकथा । एक नदी की कहानी
मैं नदी हूँ। नाम है यमुना। नागराज हिमालय मेरा पिता हैं। जब जग का ताप उनके बर्फीले हृदय को द्रवित कर देता है तो उनकी कामना से मैं जन्म लेती हूँ। मैं कन्या जो ठहरी इसलिए पिता के घर से निकलना मेरी नियती है। मै पल-पल समुद्र की ओर चलती जाती हूँ। मुझे चलने का बड़ा चाव है। कहीं हरी-हरी घाटियाँ, कहीं बर्फ कि चादर ओढ़े पहाड़ है, कहीं गहरी खाइयाँ हैं, तब भी रूकती नहीं हूँ। जन्म से लेकर समुद्र में मिलने तक मैं ठहरती नहीं हूँ।
मेरा जन्म पिता की करुणा से हुआ है। अतः मैं भूखे-प्यासे जनों को अन्न-जल का दान करने के लिए दौड़ती फिरती हूँ। मैं किसानों द्वारा रोपे गए बीजों को विकसित करती हूँ, उन्हें फल-सब्ज़ी बनाकर लोगों का पेट भरती हूँ। कपास पैदा करके तन को वस्त्र ओढ़ाती हूँ। वृक्षों की लकड़ियाँ प्रदान कर भवनों का निर्माण तो करती ही हूँ, सर्वत्र हरियाली उगाकर पर्यावरण को स्वच्छ मैं ही बनाती हूँ। मेरे जल के बिना विज्ञान चाहे कितने हाथ-पाँव मार ले वह भी अपना कोई भी यंत्र नहीं चला सकता। मेरे जल के बिना न बड़े-बड़े बाँध बन सकते हैं, न बिजली पैदा हो सकती है, न कल-कारखाने चल सकते हैं, न यह आधुनिक चकचौंद में सभ्यता खड़ी हो सकती है।
मैं समतल धरती पर उतरने से पहले स्वच्छ और सुंदर रहती हूँ किंतु इस धरती के लोग बड़े अकृतज्ञ हैं। वे मुझे धन्यवाद देने की वजाए कूड़ा-कड़कट, अपना मल और गंदगी मुझ में डाल देते हैं। जिसके चलते दिन-प्रतिदिन मेरा जल प्रदूषित होता जा रहा है। वे यह नहीं समझते हैं कि मेरे हानि पहुँचने से उनका भी नुकसान हो रहा है।
ओह! मैं भी क्या अपनी व्यथा-कथा ले बैठी। मैं तो नारी हूँ, इस जगत को देना ही मेरा धर्म है। यह लोग जो मेरे पुत्र के समान हैं, मुझे लुटे या मेरी गोदी में खेले यह तो इनकी इच्छा।
"इस अर्पण में कुछ और नहीं, केवल उत्सर्ग छलकता है।
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ, इतना ही सरल झलकता है।"
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i want to jion
ReplyDeleteClass Teacher 4
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