'अनुशासन' शब्द 'शासन' के साथ 'अनु' उपसर्ग जोड़ने से बना है, जिसका अर्थ है 'शासन के पीछे' अर्थात 'शासन के पीछे चलना'। गुरुजनों तथा श्रेष्ठजनों के नियंत्रण में रहकर नियमबद्ध जीवनयापन तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करना ही अनुशासन कहलाता है। इस प्रकार अनुशासन शारीरिक एवं वैचारिक नियमों का पालन है।
अनुशासन हमारे जीवन की केन्द्रस्थ धुरी है। विद्यार्थी और अनुशासन (Vidyarthi aur Anushasan / Students and Discipline) का संबंध अत्यंत घनिष्ठ है । अनुशासन के बिना कोई व्यक्ति विद्यार्थी नहीं हो सकता । अनुशासन-हीन विद्यार्थी या व्यक्ति न तो देश का सभ्य नागरिक बन सकता है और न अपने व्यक्तिगत जीवन में ही सफल हो सकता है।
वैसे तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन परमवाश्यक है, परन्तु विद्यार्थी-जीवन (Vidyarthi Jeevan / Student Life) के लिए यह सफलता की एकमात्र कुंजी है। जो विद्यार्थी अपने माता-पिता, गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करता है, उनके द्वारा बताए गए मार्ग में नहीं चलता, वह शिक्षित नहीं हो सकता; अपने जीवन में पद, प्रतिष्ठा एवं धन - सभी से वंचित रहता है। चाहे युद्ध के मैदान हो या खेल के मैदान, विजयी वही होते हैं जो इनमें अनुशासित रहकर आगे बढ़ते हैं। अनुशासन का हमारे जीवन में कई लाभ हैं। अनुशासन न केवल हमारे जीवन को प्रत्येक क्षेत्र में सफलता दिलाता है साथ ही सम्मान भी दिलाता है। अनुशासन द्वारा ही जीवन में उच्च आदर्शों को प्राप्त किया जाता है। अतः, अनुशासन जीवन की चतुर्दिक सफलता का महामंत्र है। जैसे पुष्प सुई और धागे का अनुशासन मानकर हार बन जाते हैं, वैसे ही जीवन नियमों एवं नीतियों का अनुशासन मानकर महान बन जाता है। हम महापुरुषों के जीवन पर थोड़ा दृष्टिपात करें, तो अनुशासन की लाभ-हानि से परिचित हो जाएंगे। महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानन्द आदि के जीवन अनुशासन की डोरी से ही बंधा था।
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अनुशासन कई तरह से आता है। जब हम छोटे रहते हैं तब परिवार या गुरुजनों पर निर्भर और उनकी आज्ञा के अनुसार चलकर अनुशासन से अभ्यस्त होते हैं। फिर बड़े होने पर, समाज के बीच आने और खाने-कमाने पर कुछ सामाजिक क़ायदे और सरकारी क़ानून हमें अनुशासन (discipline) में रखते हैं। परिवार, गुरुजनों की सीख, समाज के आचार-व्यबहार, शिक्षा प्रणाली और सरकारी क़ानून - अनुशासन के यह पाँच स्तम्भ हैं। इनमें समय, देश तथा समाज की आवश्यकता के अनुसार बदलाव तो होता है, मगर हमें ध्यान रखना है कि यह बदलाव सही ढंग से और तर्क के आधार पर हो।
एक अनुशासनहीन व्यक्ति न तो अपना कोई काम ठीक ढंग से ठीक समय पर कर सकता है और न ही अपने विचारों का प्रयोग किसी खास दिशा में (In a particular Direction) कर सकता है। जब कोई विद्यार्थी अनुशासन में रहने लायक नहीं होते तब उन्हें आश्रम, विद्यालय से अलग कर दिया जाता था क्योंकि वैसे छात्र विद्या पाने पर भी समाज को केवल हानि पहुँचाते थे। एक अनुशासनहीन छात्र अपने माता-पिता और गुरुजन को मानसिक कष्ट (Mental Tension) तो देते ही हैं साथ-साथ बड़े होकर ऐसा व्यक्ति केवल बुरे कार्यों से देश को भी नुकसान पहुँचाते हैं ।असल में अपने स्वार्थ से परे न्याय-बुद्धि के अनुसार चलना ही अनुशासन है और यह अनुशासन व्यक्ति को सही अर्थ में सामाजिक बनाता है। अतः, यदि हम समाज और राष्ट्र की उन्नती चाहते हैं, उन्हें शक्तिशाली बनाना चाहते हैं, तो इसके लिये आवश्यक हैं कि परिवार, गुरुजन, समाज और न्याय के प्रति हम अनुशासित हों। छात्र-छात्राओं में अनुशासन स्थापित किये बिना देश का कल्याण नहीं हो सकता। आज का विद्यार्थी कल का सभ्य नागरिक नहीं हो सकता जब तक ना हमारी शिक्षा-व्यवस्था में नैतिक और चारित्रिक शिक्षा पर बल देते हुए आमूल परिवर्तन किए जाए। जिससे छात्र (Chhatra Anushsan) जो कि देश का भविष्य हैं, उन्हें अपने कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान हो जाए। देश के सभ्य एवं जिम्मेदार नागरिक का निर्माण प्रत्येक माता-पिता, शिक्षकों तथा अधयापकों के हाथ में है। अतः, उन्हें भी अपने कर्तव्यों का पालन सही ढंग से करना होगा। जब हम स्वयं अनुशासित होंगे, तभी किसी दूसरे को अनुशासित रख सकेंगे।
विद्यार्थियों में अनुशासन लाकर न केवल उन्हें एक स्वस्थ एवं सफल नागरिक बनाया जा सकता है बल्कि आज के समाज में फैल रहे भ्रष्टाचार (Corruption) और आतंकवाद (Terrorism) जैसे बुराइयों को भी जड़ से मिटाया जा सकता है और देश को एक अच्छा प्रशासन एवं भविष्य दिया जा सकता है ।
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